गुरुवर की असीम कृपा

 जिंदगी में कुछ चीजें सिर्फ चाहने और पसंद करने से अपने हिस्से में नहीं आ जाती। जब कुछ चाहिये और चाहने के बाद भी ना मिले तो उसे पाने के लिये जिद्द पर उतर जाओ फिर देखे की कुदरत के पास वो चीजें आपकी झोली में उड़ेलने के सिवाय कोइ Option नहीं है। 


न जाने उस शहर का नाम तारानगर क्यूं था.... बहुत सोचा मैंने इस नाम पर... आखिर क्यों यही नाम Select किया गया इस शहर के लिये। मेरे महामहिम आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने यहां तेरापंथ का महापर्व "मर्यादा महोत्सव" Commit कर लिया था... और उस Commitment को पुरा करने श्री महाप्रज्ञ ने तारानगर में बड़े लवाजमें के साथ दस्तक दिये। 

 

 

हर शाम मुझे प्रतिक्रमण के बाद मेरे आराध्य के उत्तराधिकारी श्री महाश्रमण जी के अवग्रह में अपने 300 सेकंड्स निवेश करने थे। और इन 300 सेकंड्स में मुझे श्री महाश्रमण रोज मेरी नई व्यवस्था के लिये मुझे नये नये नाम Suggest करते.... और Confess करते कि मैं उन नामों में से एक नाम का हो जाऊं... उनके साथ अगला सफर तय करूं.... मगर मुझे कुछ और चाहिये था। मेरी नज़र में सबसे Best... युवाचार्य श्री महाश्रमण मुझे नाम Suggest करते और मैं सिर्फ एक नाम पर Focused रहता... मुनि श्री सुरेश कुमार जी। मैं उनकी हर एक अदा... हर एक अदाकारी... हर एक कारीगरी का कायल हो गया... मन ही मन आत्मा तक उन्हें सौंप चुका था.... बस हामी भरने की देर थी, Stamp लगाने की जरूरत थी तो श्री महाश्रमण का.... मैं अपने हिस्से का समर्पण कर चुका था। और युवाचार्य श्री को महसुस हो गया कि मेरी Demands Logical थी... फिर हुइ आचार्य महाप्रज्ञ और युवाचार्य श्री महाश्रमण की मेरी Expectations और Logic के बारें में कुछ देर तक एकांत में वार्ता... Finally मेरी अपेक्षा पर मोहर लग गई..... कब ? कैसे ? पता नहीं.... मगर लग गई... एसा आसपास की हवाओं और सुगबुगाहटों से पता चला... कैसे यकीन कर लू - बवंडरों पर... कैसे आंख बंद करके मान लू की हां एसा ही है। मुझे अभी तक कोइ Authentic News नहीं मिली... बस एक उम्मीद की डोर थी मेरे पास... जिसे अपनी उंगलियों में लपेटकर चल रहा था मैं... आज फैसला होना था... मर्यादा महोत्सव की आखरी गोष्ठी थी। एक चौरस हॉल में दाइ और सत्तर-अस्सी संत और बाई और सौ से ज्यादा साध्वीवृन्द व् समणीगण। इस गोष्ठी में हो रही बातों में से अधिकांश बातों के छोर तक पहुंचने की कोशिश करता उससे पहले वो बातें आगे खिसक कर गुम हो जाती.... मगर आखरी बात जो सबके साथ मुझे भी समझ में आ गई... मेरा नाम मेरे गुरु के मुखारविंद से उच्चारित हुआ - " मुनि सम्बोध कुमार " मैं हड़बड़ाहट में उठा... और आराध्य के करीब जाकर पलके झुकाये हाथ जोड़कर धड़कते दिल के साथ खड़ा हो गया... एक कशमकश... अब भी चल रही थी कि किसी और के साथ मुझे बंधन में ना बांध दिया जाये। और तभी - एक और जाना पहचाना नाम जो मेरे सबसे Favorite नाम था... गुरुवर के स्वर से मुखर हुआ - मुनि सम्बोध कुमार जी, मुनि सुमेरमल जी के निर्देशन में मुनि सुरेश कुमार जी को वंदना करो। मैं उस Announcement पर झूमना चाहता था। मगर एसा होना मुमकिन न था। मगर खुशी बेइंतहा... असीम थी... बस बयान नहीं कर सकता था - सही सुना था मैंने.... " जिस चीज़ को दिल से पाना चाहो तो पुरी कायनात उससे हमे मिलाने में जुट जाती है। खुश था... मुझे मेरे ग्रुप लिडर के तौर पर नहीं मेरी आधी अधुरी जिंदगी के रीतेपन को भरने मुनि श्री सुरेश कुमार जी जिंदगी भर के लिये मेरे बस मेरे है। मैं चल पड़ा उनके हाथों में अपनी नन्ही उंगलियां सौंपकर मेरे कल को सरजने.....

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