शिल्पकार के शिल्पी...
वो मेरे शिल्पकार के शिल्पी है। ये उनकी अपनी सरजमीं है। सुजानगढ़ है इस शहर का नाम, जहां उन्होंने पहली बार सांस ली, पहली बार आंख खोली। यही से 14 किलोमीटर की दूरी पर है आचार्य तुलसी की जन्म स्थली लाडनूं। उनकी कल्पना की कोख से जन्मी जैन विश्व भारती... रेंगती हुइ तारकालो सड़को के किनारे बिछा हरियाली का जाल... घने-लंबे... सौंधी-सौंधी खुशबू बिखेरते पेड़, करीने से कुदरत की कारीगरी की मिसाल बनकर सीना ताने खड़ी इमारते.... चारो और फिर एक दूसरे से हाथ मिलाती सड़क के सीने पर चहलकदमी करते हजारों कदम.... शायद शहरी शोर शराबे के बीच यही एक जगह थी जहां अंतहीन सुख की सांसे ली जा सकती थी। मुनि श्री सुमेरमल जी "सुमन".... हां, इसी महान संत से रूबरू करवा रहा हू, जै.वि.भा के सुरम्य वातावरण में प्रवास हो रहा है। और अचानक एक दिन उनके Urine के साथ Unlimited Blood Flow होने लगा... सारे कपड़े खून से लथपथ... करें तो क्या करें.... डॉ से मशवरा किया और अगले पंद्रह मिनट में हम उनके साथ Hospital में थे। Treatment शुरू हुआ.... Cathedral Connect कर दिया गया था.... बड़े दर्दनाक पल गुजर रहे थे.... उनके चेहरे के एक-एक बदलते Expression उस दर्द को चीख-चीख कर बयान कर रहे थे... ये कैसी मजबूरी थी, कि हम सब उनके इतने पास थे मगर उस दर्द को बांट नहीं पाये। रिपोर्ट्स आ गयी थी Diagnosis की, प्रोस्टेट में Infection तय हो गया। चातुर्मास जन्मभूमि में... कुछ दिन रहे है... सुजानगढ़ का उत्साह परवान पर था मगर ये रंग में भंग क्यों और कैसे हुआ कुछ भी पता नहीं चला। Initial Stage के Treatments के बाद Finally सुजानगढ़ पहुंच गये। डॉ घोड़ावत के नेतृत्व में Treatment शुरू हो गया। जयपुर से डॉ सदासुख ने कुछ 2-4 घण्टों में 12-13 प्रोस्टेट के Operation कर दिये। सब कुछ ठीक हो रहा था - 5 दिन बाद बायोप्सी की Report ने हमसे हमारा सब कुछ छीन लिया.... प्रोस्टेट के रास्ते से केंसर ने आपको फैला दिया। और मुनि श्री रोज मौत के करीब जा रहे थे। वो कुछ कहना चाहते थे मगर उस मनहूस बीमारी ने उनसे उनकी आवाज़ छीन ली... इससे एक दिन पहले उन्होंने जो किया.... उससे यकीन हो गया कि वो अब किसी नई दुनिया की सैर पर निकलने की तैयारी कर चुके है। मगर मन था कि यह समझने के लिये राजी ही नहीं था। उस रात को उनके अवग्रह में बैठे हम सभी संतो को अपने जपने वाली तुलसी की माला को एक एक कर गले में पहना दी.... सरोकार क्या था समझ नहीं सका... मगर वो आखरी लफ्ज रूह रूह में उतर गये - " अच्छी तरह रहना - सुरेश जी का ध्यान रखना " - ये आखरी बात मुझसे ही हुइ थी... उसके बाद वो किसी से बात नहीं कर पाये। जो भी हुआ इशारों ही इशारों में हुआ.... उस आखरी आवाज़ को सुनने के बाद 48 घण्टों का एक एक पल पिघलते हुए महावीर निर्वाण दिवस की देहरी पर आकर ठिठक गया। और मुनि श्री ने तीन हिचकियों के साथ आखरी सांस ली.... और जाने किस सफर के लिये मगर विदा हो गये। पिछे छोड़ गये अनगिन यादें और आसुंओ का सैलाब। बी.ए. की प्रवेश परीक्षा में अव्वल रहने के बाद B.A. First Year करना शायद नियति को मंजूर नहीं था.... न ही हामी भर पाया... न किताबों को छू ही... छुं क्या नहीं पाया... मन ने इजाजत ही नहीं दी कि - जिन्होंने हमेशा अपनी आंखों में मुझे डिग्री होल्डर होने का सपने देखे... अब वो नहीं है तो फिर से डिग्री की यात्रा पर कैसे चल पढू। उस दिन Degree की दुनिया को अलविदा कह दी.... और फिर कभी उस ख्याल को भी सीने में धड़कनें नहीं दिया... है ना कुछ Strange... अरे चाय भी तो मेरी कमजोरी थी... 18 साल हो गये चाय का स्वाद क्या उसकी महक को भी अपनी इंद्रियों को महसूस नहीं होने दिया... जानना चाहते है क्यों ? इसके पिछे भी एक Story है... जुड़े रहे अगले Blog में....



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